"जिस प्रकार से सूर्य जमींन से नमीं को सोंख कर, इसे कई हजार गुणा करके वापस कर देता है। ठीक उसी प्रकार से राजा अपनी प्रजा से करों की वसूली करके, इसे अपनी प्रजा की भलाई पर ही व्यय कर देता है "
---रघुवंश में कालिदास राजा दलीप से कहते है ।
यह आम-धारणा है कि आय तथा सम्पत्ति पर करों की उत्पत्ति हाल ही में हुई है परंतु इस बात के पर्याप्त सबूत है कि आदिम तथा प्राचीन समुदायों में भी आय पर कर किसी न किसी रूप में लगाए जाते थे । 'कर' शब्द की उत्पत्ति 'कराधान' से हुई है जिससे तात्पर्य आंकलन से है। इसे माल या पशुधन की बिक्री या खरीद पर लगाया जाता था तथा समय समय पर बेतरतीब ढंग से एकत्र किया जाता था। लगभग 2000 वर्ष पहले, सीजर ऑगस्त्स ने एक आदेश जारी कर कहा था कि सारी दुनियां में कर लगाया जाना चाहिए। ग्रीस, जर्मनी और रोमन साम्राज्य में, करों को कभी कारोबार के आधार पर लगाया गया तथा कभी व्यवसाय के आधार पर लगाया गया। कई शताब्दियों तक, करों से प्राप्त आय सम्राट के पास जाती रही। उत्तरी इंग्लैंड में, जमीन तथा चल सम्पत्ति पर कर लगाए गए जैसाकि 1188 में सलादीन सिरनामें में कहा गया है। बाद में, इनके स्थान पर पूरक व्यक्ति-कर और अप्रत्यक्ष करों की शुरूआत हुई, जिन्हें 'प्राचीन-सीमा शुल्क' के नाम से जाना गया जिनमें ऊन, चमड़ें तथा खालों पर शुल्क लगाए गए थे। विभिन्न रूपों और विभिन्न वस्तुओं तथा व्यवसायों पर लगाई गई ये लेवी और कर, प्रजा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ही नही, अपितु नागरिकों की आम जरूरतों को पूरा करने के लिए, सड़कों के रखरखाव, न्याय व्यवस्था और राज्य के इस तरह के अन्य कार्यों के साथ साथ सरकार द्वारा अपने सैन्य और नागरिक व्ययों को पूरा करने के लिए लगाये गये।
भारत में भी, प्राचीन काल से वर्तमान प्रत्यक्ष कर प्रणाली किसी न किसी रूप में चलती आ रही है। मनु स्मृति और अर्थशास्त्र, दोनों में अनेक प्रकार के करों के संदर्भ मिलते है। प्राचीन मनीषी तथा कानून दाता मनु ने कहा है कि शास्त्रों के अनुसार राजा कर लगा सकता है। बुद्धिमान मनीषी ने सलाह दी थी कि करों का संबंध, प्रजा की आय तथा व्यय से होना चाहिए। हालांकि, उसने अत्यधिक कराधान के प्रति राजा को आगाह किया था तथा कहा था कि दोनों चरम सीमाओं अर्थात करों के पूर्ण अभाव और हद से अधिक कराधान से बचना चाहिए। उसके अनुसार, राजा को करों की वसूली की ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि प्रजा करों की अदायगी करते समय कठिनाई महसूस न करें। उसने कहा था कि व्यापारियों तथा कारीगरों को चांदी और सोने के व्यापार में होने वाले अपने लाभ का पांचवां हिस्सा और किसानों को अपनी उपज का छठा, आठवां या दसवां हिस्सा, अपनी हालात के आधार पर, कर के रूप में भुगतान करना चाहिए। मनु द्वारा, इस विषय पर दिए गए विस्तृत विश्लेषण से स्पष्ट है कि प्राचीन समय में भी एक सुनियोजित कराधान प्रणाली अस्तित्व में थी। केवल यही नहीं, अभिनेताओं, नर्तकों, गायकों और नाचने वाली लड़कियों जैसे विभिन्न वर्गों के लोगों पर भी कर लगाए जाते थे। करों की अदायगी, सोने के सिक्कों, पशुओं, अनाज, कच्चे माल के साथ साथ व्यक्तिगत सेवा प्रदान करके भी की जाती थी।
प्राचीन भारत में कराधान प्रणाली पर टिप्पणी करते हुए प्रसिद्ध लेखक के बी सरकार ने अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारत में सार्वजनिक वित्त' (1978 संस्करण) में लिखा है कि 'प्राचीन भारत के अधिकांश कर अत्याधिक उत्पादक थे। कर प्रणाली में प्रत्यक्ष करों के साथ अप्रत्यक्ष करों का मिश्रण सुरक्षित व लचीला था, हालांकि प्रत्यक्ष कर पर ज्यादा अधिक जोर था। यह कर प्रणाली का व्यापक आधार था और इस के तहत अधिकांश व्यक्ति आते थे। करों में विविधता थी और करों की व्यापक विविधता से बहुत बड़ी तथा मिश्रित आबादी की जीवन शैली परिलक्षित होती थी।'
हालांकि, कौटिल्य के अर्थशास्त्र में, कराधान प्रणाली को वास्तविक, व्यापक और सुनियोजित व्यवस्था प्रदान की गई। जब मौर्य साम्राज्य की ख्याति वास्तव में अपने चरम पर थी, उस समय में, प्रसिद्ध ग्रन्थ 'राज्य शिल्प' को 300 ईसा पूर्व के आस पास लिख गया ताकि उस समय की सभ्यता का गहन अध्ययन किया जा सके और सुझाव प्राप्त हो सके, ताकि इनके आधार पर कोई राजा अपनी शासन व्यवस्था को कुशलतम तथा उपयोगी तरीके से चला सके। अर्थशास्त्र का बहुत बड़ा भाग कौटिल्य द्वारा वित्तीय प्रशासन सहित वित्तीय मामलों को समर्पित है। प्रसिद्ध राजनीति विशेषज्ञों के अनुसार, मौर्यकालीन प्रणाली में, जहां तक कृषि का संबंध है, भूमि का स्वामित्व एक प्रकार से राज्य के पास था और भू-राजस्व की वसूली, राज्य की आय का एक प्रमुख स्रोत थी। राज्य द्वारा कृषि उत्पादन के एक हिस्से को, जोकि आम-तौर पर कृषि उपज का छठा हिस्सा था, ही वसूल नहीं किया जाता था अपितु जल कर, चुंगी कर, टोल तथा सीमा शुल्कों को भी लगाया जाता था। वानिक उपज तथा धातुओं आदि के खनन से भी करों की वसूली की जाती थी। नमक कर भी राजस्व का एक महत्वपूर्ण स्रोत था तथा इसकी वसूली, इसकी निकासी के स्थान पर की जाती थी।
कौटिल्य ने दूसरे देशों के साथ किए जा रहे व्यापार और वाणिज्य पर विस्तार से चर्चा की है और ऐसे व्यापार को बढ़ावा देने को मौर्य साम्राज्य की सक्रिय रुचि में बताया है। माल को चीन, श्रीलंका और अन्य देशों से आयात किया जाता था और देश में आयातित समस्त विदेशी माल पर वर्तनम के नाम से लेवी ली जाती थी। विदेशी माल का आयात करने वाले संबंधित व्यापारी द्वारा दर्वोदय नामक अन्य लेवी का भुगतान करना होता था। इसके अतिरिक्त, कर वसूली को बढ़ाने के लिए, सभी प्रकार की नौकाओं पर शुल्क लगाया गया था।
आयकर संग्रह प्रणाली सुनियोजित थी और राज्य के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा इससे आता था। इसका एक बड़ा भाग नर्तकों, संगीतकारों, अभिनेताओं और नाचने वाली लड़कियों आदि से आयकर के रूप में एकत्र किया जाता था। यह कराधान अस्थिर आय के प्रति प्रगामी न होकर, आय में उतार-चढ़ाव के समानुपाती था। अतिरिक्त लाभ कर को भी एकत्र किया जाता था। बिक्रियों पर सामान्य बिक्री कर भी लगाया जाता था। इमारतों की बिक्री तथा खरीद भी कर के अधीन थी। यहां तक कि जूआबाजी का संचालन भी केंद्रीकृत था और इन कार्यों पर भी कर की वसूली की जाती थी। तीर्थ यात्रियों पर भी यात्रावेतन नाम से कर लगाया हुआ था। यद्यपि, राजस्व सभी संभव स्रोतों से एकत्र किया जाता था परंतु, इसमें अन्तर्निहित धारणा लोगों का शोषण करना या अधिक कर थोपना नहीं था, अपितु, प्रजा के साथ-साथ शासन और राजा को बाहरी तथा आंतरिक खतरों के प्रतिरक्षा प्रदान करना था। इस तरीके से एकत्र राजस्व को सड़कें बनाने, शिक्षण संस्थानों की स्थापना, नए गांव बसाने और समुदाय के लिए लाभप्रद अन्य गतिविधियों जैसी सामाजिक सेवाओं पर खर्च किया जाता था।
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में सार्वजनिक वित्त और कराधान प्रणाली को इतना महत्व क्यों दिया, इसका कारण तलाश करने के लिए ज्यादा दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। उसके अनुसार, सरकार की सत्ता, उसके राजकोष की मजबूती पर निर्भर करता है। उसके अनुसार "- सरकार के पास सत्ता राजकोष से आती है और पृथ्वी का आभूषण खजाना है जिसे राजकोष और सेना के माध्यम से अर्जित किया जाता है"। हालांकि, उसने राजस्व तथा करों को, शासन के द्वारा अपने व्यक्तियों को दी जा रही सेवाओं और उन्हें सुरक्षा प्रदान करने तथा कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए, शासक के लिए एक आय बताया गया है। कौटिल्य ने इस बात पर बल दिया कि भूमि का ट्रस्टी केवल राजा ही था और इसे बचाने तथा इसे अधिक से अधिक उपजाऊ बनाने का कर्तव्य राजा का है ताकि राज्य के आय के मुख्य स्रोत के रूप में भू-राजस्व एकत्रित किया जा सके। उसके अनुसार, कर का भुगतान, प्रजा द्वारा शासक को किया जाने वाला अनिवार्य योगदान नहीं था, परंतु यह संबंध धर्म पर आधारित था और एकत्र किए गए कर के मद्देनजर अपने नागरिकों की रक्षा करना, राजा का पवित्र कर्तव्य था और यदि राजा अपना कर्तव्य पूरा करने में विफल रहता है तो प्रजा को अधिकार है कि वह करों का भुगतान बंद कर दे और यहां तक कि भुगतान किए गए करों की वापसी की मांग करने का अधिकार था।
कौटिल्य ने मौर्य साम्राज्य में कर प्रशासन की प्रणाली का वर्णन भी काफी विस्तार से किया है। उल्लेखनीय है कि वर्तमान समय में प्रचलित कर प्रणाली, मौटे-तौर पर, आज से लगभग 2300 वर्ष पहले प्रचलित कराधान प्रणाली के समान ही है। अर्थशास्त्र में दिए गए अनुसार, प्रत्येक कर निर्दिष्ट था और मोल-भाव की कोई गुंजाइश नहीं थी। प्रत्येक भुगतान की अनुसूची में स्पष्टता थी और इसका समय, तरीका और मात्रा आदि सभी पूर्व निर्धारित थे। भू-राजस्व, उपज का छठा हिस्सा नियत था और आयात व निर्यात शुल्क यथामूल्य आधार पर निर्धारित था। विदेशी माल पर आयात शुल्क, उनके मूल्य का लगभग 20 प्रतिशत था। इसी तरह से टोल, सड़क उपकर, नौका-शुल्क और अन्य लेवी आदि सभी तय थे। कौटिल्य के कराधान की अवधारणा, कराधान की आधुनिक प्रणाली के लगभग समान थी। इस प्रणाली में कराधान में समानता और न्याय पर बल दिया गया था। अमीर व्यक्तियों को कम अमीर व्यक्तियों की तुलना में उच्च करों का भुगतान करना होता था। बीमारियों से पीड़ित व्यक्तियों या नाबालिगों और छात्रों को करों से छूट प्राप्त थी या उपयुक्त से छूट दी गई थी। राजस्व संग्रहकों द्वारा संग्रहण और छूट के अद्यतन रिकॉर्ड तैयार किए गए थे। राज्य के कुल राजस्व को, ऊपर दिए गए अनुसार, अनेक स्रोतों से एकत्र किया जाता था। अन्य स्रोतों से एकत्रित किए जाने वाले अन्य कर भी थे जिनमें टिकाउ भूमि से (सीता), धार्मिक कर (बाली) और नकद प्रदत्त कर (कार) शामिल थे। सड़कों और यातायात पर टोल कर के रूप में प्राप्त आय वणिकपथ भी था।
उसने भू-राजस्व और वाणिज्य पर करों को कर राजस्व के तहत रखा। ये कर नियत थे और इन में भद्र, पडिक तथा वसन्तिका छमाही कर शामिल थे। सीमा शुल्क और बिक्री कर, व्यापार और व्यवसाय पर कर तथा प्रत्यक्ष कर, वाणिज्य पर करों में शामिल थे। बोई गई भूमि की उपज, तेल, गन्ना और पेय पदार्थों के निर्माण से होने वाला राज्य का लाभ और शासन द्वारा किए जाने वाले अन्य लेनदेन, गैर-कर राजस्व में शामिल थे। शादी के मौकों पर उपयोग की गई वस्तुओं, बलि समारोहों के लिए आवश्यक वस्तुओं और विशेष प्रकार के उपहारों पर कराधान से छूट प्राप्त थी। सभी प्रकार की शराब पर 5 प्रतिशत टोल लगाया जाता था। कर चोरों और अन्य अपराधियों पर 600 पणों तक का जुर्माना किया जाता था।
कौटिल्य ने यह भी निर्धारित किया था युद्ध या अकाल या बाढ़ आदि जैसी आपात स्थिति में, कराधान प्रणाली को और अधिक कड़ा किया जाना चाहिए और राजा भी युद्ध हेतु ऋण ले सकता है। आपात स्थिति के दौरान भू-राजस्व को छठे हिस्से से बढ़ाकर चौथे हिस्से तक किया जा सकता है। युद्ध के लिए, वाणिज्य में लगे लोगों को अधिक राशि का भुगतान करना होता था।
समग्र दृष्टिकोण पर विचार करने के बाद कहा जा सकता है कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में, इस देश में सार्वजनिक वित्त, प्रशासन और राजकोषीय कानूनों पर पहली बार आधिकारिक रूप से विषय वस्तु, बिना किसी विरोधाभास के प्रस्तुत की गई थी। कर-राजस्व और कर-राजस्व की उसकी अवधारणा, कर प्रशासन के क्षेत्र में एक अद्वितीय योगदान थी। यह कौटिल्य ही था जिसने शासन को चलाने में कर राजस्व को उचित स्थान दिया और साम्राज्य की समृद्धि और स्थिरता के लिए दूरगामी योगदान को प्रस्तुत किया। यह वास्तव में एक अद्वितीय ग्रंथ है। इसमें आर्थिक और वित्तीय प्रशासन सहित राज्य शिल्प की कला को सटीक शब्दों में दिया गया है।
1922 के बाद कराधान का इतिहास
1. प्रारंभिक:
पिछले दशकों के दौरान प्रत्यक्ष करों के प्रशासन में तेजी से हुए बदलाव, भारत में सामाजिक-आर्थिक सोच के इतिहास को दर्शाते हैं। 1922 से आज तक, प्रत्यक्ष कर कानूनों में हुए परिवर्तन इतनी तेजी से हुए है कि आयकर अधिनियम 1922 की आरंभिक रूपरेखा के सिवाय, अद्यतन संशोधित 1961 के अधिनियम में, शायद ही अन्यथा कुछ दिखाई दे। यह स्वाभाविक ही है कि इस विभाग की स्थापना में केवल विस्तार ही नहीं हुआ है, अपितु इसकी संरचना में भी परिवर्तन हुए है।
2. विभाग की स्थापना के बाद से इसके प्रशासनिक ढ़ांचे में परिवर्तन :
आय कर विभाग का संगठनात्मक इतिहास सन् 1922 से आरंभ होता है। आय कर अधिनियम, 1922 में विभिन्न आय कर प्राधिकारियों को पहली बार एक विशिष्ट नामकरण दिया गया। इस प्रकार से, प्रशासन की उचित प्रणाली की नींव रखी गई थी। सन् 1924 में, राजस्व अधिनियम के केंद्रीय बोर्ड को सांविधिक निकाय के रूप में गठित किया गया जिसका दायित्व, आयकर अधिनियम के प्रशासन के कार्यों को देखना था। प्रत्येक प्रांत के लिए अलग से आयकर आयुक्त नियुक्त किए गए और इसके अधीन सहायक आयुक्त और आयकर अधिकारियों को दिया गया। सन् 1939 में किए गए आयकर अधिनियम में संशोधन में, दो महत्वपूर्ण संरचनात्मक परिवर्तन किए (i) अपीलीय कार्यों को प्रशासनिक कार्यों से अलग किया गया, इस प्रकार से अपीलीय सहायक आयुक्तों के रूप में जाना जाने वाले अधिकारियों का एक वर्ग अस्तित्व में आया, और (ii) बम्बई में एक केंद्रीय प्रभारी बनाया गया। भारत-भर में आयकर विभाग के कार्य की प्रगति और निरीक्षण कार्य पर प्रभावी नियंत्रण के उद्देश्य से, बोर्ड के पहले संबद्ध कार्यालय, निरीक्षण निदेशालय (आय कर) – का सृजन किया गया। कार्यकारी तथा न्यायिक कार्यों के अलग किए जाने के कारण सन् 1941 में अपीलीय न्यायाधिकरण अस्तित्व में आया। इसी वर्ष में, कलकत्ता में भी एक नए प्रभारी की नियुक्ति की गई।
2.1 दूसरे विश्व युद्ध से व्यवसायियों को असामान्य लाभ हुआ। 1940 से 1947 के दौरान, अतिरिक्त लाभ कर और व्यवसाय लाभ कर शुरू किए गए और इसको प्रशासन (इन्हें बाद में क्रमश: 1946 और 1949 में निरस्त कर दिया गया) विभाग को सौंप दिया गया। सन् 1951 में पहली स्वैच्छिक प्रकटीकरण योजना लाई गई। सन् 1946 में, इसी अवधि के दौरान ही 'ए' वर्ग के कुछ अधिकारियों की सीधी भर्ती की गई। बाद में सन् 1953 में, समूह 'ए' सेवा से ही औपचारिक रूप से 'भारतीय राजस्व सेवा' का गठन किया गया।
2.2 इस युग की विशेषता यह रही कि इस युग में जांच तकनीकों के अपग्रेडेशन पर काफी बल दिया गया। सन् 1947 में, आय पर कराधान (अन्वेषण) आयोग की स्थापना की गई जिसे सन् 1956 में उच्चतम न्यायालय द्वारा अधिकारहीन घोषित कर दिया, परंतु तब तक गहरी जांच की आवश्यकता की जाने लगी थी। सन् 1952 में, निरीक्षण निदेशालय (अन्वेषण) का गठन किया गया। इसी वर्ष में ही, आयकर के निरीक्षकों का एक नया संवर्ग बनाया गया। 'अधिक आय' के मामलों में वृद्धि होने के कारण विभागीय अधिकारियों द्वारा किए गए कार्य की जाँच जरूरी हो गई। इस प्रकार से सन् 1954 में, आंतरिक लेखा परीक्षा योजना को आयकर विभाग में आरंभ किया गया।
2.3 जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सन् 1946 में पहली बार विभाग में कुछ समूह ए के अधिकारियों की भर्ती की गई। उन्हें प्रशिक्षण दिया जाना आवश्यक था। इन नए भर्ती किए गए अधिकारियों को मुंबई और कोलकाता भेज कर प्रशिक्षण दिया गया हालांकि ऐसा संगठित तरीके से न हो सका। सन् 1957 में, भारतीय राजस्व सेवा (I।R।S) (प्रत्यक्ष कर) स्टाफ कॉलेज ने नागपुर में कार्य करना शुरू कर दिया। आज बोर्ड से सबद्ध यह कार्यालय महानिदेशक के तहत कार्य कर रहा है। इसे राष्ट्रीय प्रत्यक्ष कर अकादमी कहा जाता है। सन् 1963 तक, आयकर विभाग के पास सम्पत्ति कर, सामान्य कर, प्रवर्तन निदेशालय, जैसे कई अन्य प्रशासनिक कार्य थे। आज इसका विस्तार इतना अधिक हो गया है कि आयकर विभाग को एक अलग बोर्ड के तहत लाना अनिवार्य हो गया था। परिणाम स्वरूप, राजस्व अधिनियम केंद्रीय बोर्ड, 1963 को पारित किया गया। इस अधिनियम के तहत, केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड का गठन किया गया।
2.4 देश की अर्थव्यवस्था की विकासशील प्रकृति के कारण करों तथा काली आय अर्थात दोनों करों में, कई गुना वृदि्ध हुई। सन् 1965 में, स्वैच्छिक प्रकटीकरण योजना का अनुसरण 1975 में प्रकटीकरण योजना द्वारा किया गया। अंत में स्थायी निपटान तंत्र की आवश्यकता होने के कारण निपटान आयोग का गठन किया गया।
2.5 इस अवधि के दौरान, एक अति महत्वपूर्ण प्रशासनिक परिवर्तन हुआ। कर की बकाया राशि की वसूली, जोकि 1970 तक राज्य प्राधिकारियों के पास थी, वह विभागीय अधिकारियों के पास आ गई। अधिकारियों की एक पूरी नई विंग - टैक्स वसूली अधिकारी बनाई गई और 1-1-1972 से कर वसूली आयुक्तों का एक नया संवर्ग बनाया गया।
2.6 कार्य की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए, 1977 में एक नया संवर्ग आईएसी (मूल्यांकन) और सन् 1978 में एक अन्य संवर्ग, जिसे सीआईटी (अपील) कहा जाता था, बनाया गया। आयुक्तों के संवर्ग का पुनर्गठन किया गया और सन् 1981 में, मुख्य आयुक्त (प्रशासन) के पांच पद सृजित किए गए।
2.7 कर सुधार : पिछले कुछ वर्षों के दौरान किए गए कुछ महत्वपूर्ण नीतिगत तथा प्रशासनिक सुधार निम्न है:-
(क) नीतिगत सुधारों में निम्न शामिल है :-
- • कर दरों को कम करना;
- • मुख्य प्रोत्साहनों की वापसी/कम करना;
- • अनुमानित कराधान के उपायों की शुरूआत;
- • कर कानूनों, विशेष रूप से पूंजीगत लाभों के संबंध में, का सरलीकरण और
- • कर आधार को विस्तृत बनाना।
(ख) प्रशासनिक सुधारों में निम्न शामिल है :-
- • कर दाताओं को अद्वितीय पहचान संख्या, जोकि अद्वितीय व्यवसायिक पहचान संख्या के रूप में उभर रही है, आवंटित करने की प्रक्रिया में कम्पयूटीकरण का समावेशन करना।
- • संगठन की बदली हुई व्यवसायिक आवश्यकताओं के साथ उपलब्ध मानव संसाधनों को पुन: तैयार करना।
2.8 कम्पयूटीकरण : आयकर विभाग में कम्प्यूटीकरण की शुरूआत सन् 1981 में आयकर प्रणाली निदेशालय की स्थापना के साथ हुई। आरंभ में, चालानों के संसाधन के कार्य का कम्प्यूटीकरण किया गया। इसके लिए, 1984-85 में तीन कंप्यूटर केंद्रों पर 73 कम्पयूटरों का उपयोग, महानगरों में पहली बार किया गया। बाद में सन् 1989 में इसे बढ़ाकर 33 प्रमुख शहरों कर दिया गया। तदुपरांत, कम्प्यूटरीकृत गतिविधियों को प्रयोग, पुरानी श्रृंखला के तहत स्थायी खाता संख्या (PAN), टैन संख्या (TAN) और पे-रोल लेखांकन में किया गया। इन कंप्यूटर केंद्रों का उपयोग डाटा प्रविष्टि हेतु अवाक् (dumb) टर्मिनलों पर बैच प्रक्रिया के लिए किया गया। सन 1993 में, सरकार द्वारा विभाग का कम्प्यूटीकरण करने के लिए एक कार्य समूह की स्थापना की गई। कार्य समूह की रिपोर्ट के आधार पर, सरकार द्वारा अक्टूबर 1993 में, एक व्यापक कम्प्यूटीकरण योजना अनुमोदित की गई। इस समूह की रिपोर्ट के आधार पर, पर सन् 1994-95 में, दिल्ली, मुम्बई तथा चेन्नई में क्षेत्रीय कम्प्यूटर केन्द्रों की स्थापना, RS59 / 6000H सर्वर के साथ की गई। इन शहरों में चरणों में पहले अधिकारियों को पी सी प्रदान किये गए। योजना में सभी प्रयोक्ताओं को लैन/वैन (LAN/WAN) के द्वारा नेटवर्किंग पर लाना था। तदनुसार, सन 1994-95 के दौरान पहले चरण में दिल्ली, मुम्बई तथा चेन्नई में लीज्ड डाटा सर्किटों के साथ नेटवर्क की स्थापना की गई। 1996-97 के दौरान, दिल्ली में राष्ट्रीय कम्प्यूटर केंद्र की स्थापना की गई। 1997-99 के दौरान एक एकीकृत अनुप्रयोग सॉफ्टवेयर विकसित तथा नियोजित किया गया। तत्पश्चात्, 1996-97 में विभिन्न प्रमुख शहरों में 33 अन्य कम्प्यूटर केंद्रों में RS प्रकार 6000 के मिड रेंज सर्वर प्रदान किये गये। इन्हें पट्टे की लाइनों के माध्यम से राष्ट्रीय कम्प्यूटर केन्द्र से जोड़ा गया। सन् 1997 और 1999 के दौरान आयकर अधिकारी के स्तर तक के अधिकारियों को, चरणों में पी सी प्रदान किए गए। दूसरे चरण में, 57 शहरों के कार्यालयों को नेटवर्क पर लाया गया तथा इन्हें आरसीसी और एनसीसी के साथ जोड़ा गया।
2.9 आयकर विभाग का पुनर्गठन : 31-8-2000 को आयोजित मंत्रिमण्डल की बैठक में, निम्नलिखित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए, आयकर विभाग का पुनर्गठन करने का अनुमोदन किया गया : -
- • प्रभावीशालिता तथा उत्पादकता में वृदि्ध करना।
- • राजस्व संग्रहण में वृदि्ध करना।
- • कर दाताओं को प्रदत्त सेवाओं में सुधार करना।
- • कार्यबल की संख्या में कमी करके व्यय में कमी करना।
- • सभी स्तरों पर कैरियर की संभावनाओं में सुधार लाना।
- • सूचना प्रौद्योगिकी को शुरू करना और
- • कार्य मानदण्ड़ों का मानकीकरण
विभाग द्वारा उक्त उल्लिखित उद्देश्यों की प्राप्ति निम्न बहु-आयामी नीति द्वारा पाई जाएगी:
- क. कार्यात्मकता के द्वारा व्यवसायिक प्रक्रियाओं की रूप-रेखा पुन: बनाई जाएगी।
- ख. बेहतर पर्यवेक्षण, नियंत्रण तथा कार्य भार के प्रबंधन पर प्रभावी नियंत्रण करने और कर दाताओं की सेवाओं में सुधार करने के लिए अधिकारियों की संख्या बढ़ाई जाए और
- ग. कैरियर एडवांसमेन्ट के रूप में उपयुक्त प्रोत्साहनों के द्वारा कार्य बल का पुन: अभिमुखीकरण, पुन: प्रशिक्षण तथा पुन: नियुक्ति करना ।
3. आयकर विभाग के प्रशासनिक ढांचे को प्रभावित करने वाली महत्वपूर्ण घटनाएं :
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1939
- अपीलीय कार्यों को निरीक्षण कार्यों से अलग किया गया।
- AACS के नाम से जाना जाने वाला अधिकारियों के एक संवर्ग अस्तित्व में आया।
- कुछ विशेष प्रकार के मामलों में, आयकर आयुक्तों के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाया गया और मुंबई में एक केंद्रीय प्रभारी का सृजन किया गया।
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1940
- निरीक्षण (आयकर निदेशालय) अस्तित्व में आया।
- 1-9-1939 से अतिरिक्त लाभ कर प्रस्तुत किया गया।
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1941
- आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण अस्तित्व में आया।
- कलकत्ता में केंद्रीय प्रभारी बनाया गया।
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1943
- विशेष जांच शाखाओं की स्थापना की।
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1946
- वर्ग –I के कुछ अधिकारियों की सीधी भर्ती की गई।
- उच्च मूल्य वर्ग के नोटों का विमुद्रीकरण किया गया।
- अतिरिक्त लाभ कर अधिनियम को निरस्त किया गया।
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1947
- व्यापार लाभ कर अधिनियम (1-4-1946 से 31-3-1949 की अवधि हेतु) बनाया गया।
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1951
- वर्धाचारी आयोग के रूप में प्रसिद्ध आयकर जांच आयोग की रिपोर्ट प्राप्त हुई।
- स्वैच्छिक प्रकटीकरण योजना की शुरुआत हुई।
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1952
- निरीक्षण निदेशालय (अन्वेषण) की स्थापना हुई।
- आयकर के निरीक्षकों को आयकर प्राधिकारी के रूप में घोषित किया गया।
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1953
- 15-10-1953 से संपदा शुल्क अधिनियम, 1953 अस्तित्व में आया।
- 1953 के अधिनियम XXV के परिणाम-स्वरूप, आय के कराधान (जांच आयोग) अधिनियम, 1947 के तहत नियुक्त आयोग की सिफारिशें प्रभावी हुई।
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1954
- आयकर विभाग में आंतरिक लेखा परीक्षा योजना की शुरुआत हुई।
- जॉन मथाई आयोग के रूप में प्रसिद्ध कराधान पूछताछ आयोग की स्थापना हुई।
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1957
- 1-4-1957 से धन कर अधिनियम, 1957 की शुरुआत हुई।
- आईआरएस (डीटी) स्टाफ कॉलेज ने नागपुर में कार्य करना शुरू किया तथा काफी बाद में बंबई, कोलकाता, बेंगलूर और लखनऊ को खोला गया।
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1958
- 1-4-1958 से उपहार-कर अधिनियम, 1958 की शुरुआत हुई।
- विधि आयोग की रिपोर्ट प्राप्त हुई।
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1959
- प्रत्यक्ष कर प्रशासन पूछताछ समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
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1960
- निरीक्षण (अनुसंधान, सांख्यिकी और प्रकाशन) निदेशालय स्थापित किया गया।
- निरीक्षकों के दोनों ग्रेडों - चयन और साधारण ग्रेड – का एक ही ग्रेड में विलय कर दिया।
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1961
- प्रत्यक्ष कर सलाहकार समिति की स्थापना - प्रत्यक्ष कर प्रशासनिक पूछताछ समिति का गठन किया गया।
- 1-04-1962 से आयकर अधिनियम, 1961 अस्तित्व में आया।
- विभाग में पहली बार राजस्व लेखा परीक्षा आरंभ की गई।
- आयकर अधिकारियों द्वारा किए गए कार्य के मूल्यांकन के लिए नई प्रणाली का शुभारम्भ हुआ।
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1963, 1964
- केन्द्रीय राजस्व बोर्ड का विभाजन किया गया और केंद्रीय बोर्ड राजस्व अधिनियम 1963 के अन्तर्गत प्रत्यक्ष करों के लिए एक अलग बोर्ड बनाया गया जिसे केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (CBDT) कहा गया।
- पहली बार, विभाग से एक अधिकारी सीबीडीटी का अध्यक्ष, दिनांक 1-1-1964 से प्रभावी, बना।
- कंपनी (लाभ) उप-कर अधिनियम, 1964 प्रस्तुत किया गया।
- वार्षिकी जमा योजना 1964 में आरंभ हुई।
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1965
- स्वैच्छिक प्रकटीकरण योजना लागू हुई।
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1966
- कार्यात्मक योजना प्रस्तुत की गई।
- विशेष वसूली इकाई बनाई गई।
- एक नई विंग बनाई गई और इसे निरीक्षण (अन्वेषण) निदेशालय के अंतर्गत रखा गया।
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1968
- आयकर विभाग में मूल्यांकन कक्ष अस्तित्व में आया।
- कर संरचना के तर्क संगत तथा सरलीकरण पर रिपोर्ट (भूतलिंगम समिति) प्राप्त हुई।
- प्रशासनिक सुधार आयोग स्थापित किया गया।
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1969
- वर्ग दो के आयकर अधिकारियों की सीधी भर्ती की गई।
- आयकर विभाग में आईएसी (आडिट) का पद बनाया गया।
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1970
- आयकर के अतिरिक्त आयुक्त के पद सृजित किए गए तथा एक वर्ष के बाद समाप्त कर दिए गए।
- आयकर अधिकारियों द्वारा किए जाने वाले वसूली कार्यों को कर वसूली अधिकारियों को दिया गया। इससे पहले, कर वसूली अधिकारी के कार्य राज्य सरकार के अधिकारियों द्वारा किए जाते थे।
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1971
- दिनांक 1-1-1972 से कर वसूली आयुक्तों के पद का नया संवर्ग शुरू किया गया।
- प्रत्यक्ष कर पूछताछ समिति की रिपोर्ट प्राप्त हुई।
- दिनांक 1-4-1971 से सारांश आंकलन योजना आरंभ की गई ।
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1972
- निरीक्षण निदेशालय (अन्वेषण) के अंदर ही एक विशेष कक्ष गठित किया गया जो बड़े औद्योगिक घरानों के मामलों की देखरेख के लिए बनाया गया।
- आईएसी (अर्जन) के नाम से पदों का एक नया संवर्ग बनाया गया और आईएसी करापवंचन का मुकाबला करने के लिए कुछ मामलों में अचल संपत्तियों के अंतरण के मामलों में, अधिग्रहण करने हेतु आयकर अधिनियम, 1961 में एक नया अध्याय XXA को जोड़ा गया जिससे आईएसी को सक्षम प्राधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया।
- संगठन एवं प्रबंधन सेवा (आयकर) निदेशालय बनाया गया।
- आई.टी.ओ. (आंतरिक लेखा परीक्षा) का पद बनाया।
- आयकर विभाग में ब्राडमा योजना की शुरुआत की गई।
- स्थायी खाता संख्या की प्रणाली शुरू की गई।
- आयकर अधिनियम, 1961 और संपत्ति कर अधिनियम, 1957 के तहत मूल्यांकन अधिकारी को वैधानिक शक्तियां दी गई।
-
1974
- अनिवार्य जमा योजना (आयकर दाता) अधिनियम, 1974 की शुरुआत की गई।
- आयकर अधिकारियों के लिए पहली बार कार्य योजना प्रस्तुत की गई।
- एम.बी.ओ. की अवधारणा शुरू की गई।
-
1975
- आय तथा सम्पत्ति कर के लिए स्वैच्छिक प्रकटीकरण योजना लागू की गई।
- तस्करों के मामलों के निपटान हेतु विशेष कक्ष बनाया गया।
-
1976
- निपटान आयोग बनाया गया और कराधान कानून (संशोधन) अधिनियम, 1975 में आयकर अधिनियम में दिनांक 1-4-1976 से एक नया अध्याय XIXA डाला गया।
- दिनांक 25-1-1976 से प्रभावी तस्कर और विदेशी मुद्रा छल योजना (संपत्ति की जब्ती) अधिनियम, 1976 की शुरुआत हुई।
- खातों के विभागीयकरण की एक नई योजना आरंभ की गई।
- चोकसी समिति ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट प्रस्तुत की।
-
1977
- एक नये संवर्ग में पद आईएसी (मूल्यांकन) बनाया गया।
-
1978
- आयुक्त (अपील) के रूप में प्रसिद्ध आयुक्तों के एक नये संवर्ग को अपीलीय कार्य सौंपे गए।
- निरीक्षण निदेशालय (वसूली) की स्थापना की गई।
- निरीक्षण निदेशालय (अन्वेषण) के कार्यों में विभाजित करके, निरीक्षण निदेशालय (सतर्कता) के रूप में जाना जाने वाला एक नया निदेशालय द्वारा अस्तित्व में आया।
- चोकसी समिति ने अपनी अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की।
-
1979
- निरीक्षण निदेशालय (आर एस एंड पी) से निरीक्षण निदेशालय (प्रकाशन एवं जन सम्पर्क) के रूप में नया निदेशालय बनाया गया।
-
1980
- दिनांक 1-4-1981 से होटल प्राप्ति कर अधिनियम प्रभावी हुआ।
-
1981
- आर्थिक प्रशासनिक सुधार आयोग की स्थापना की गई।
- तीन नए निदेशालयों अर्थात निरीक्षण (सतर्कता) निदेशालय, निरीक्षण (सर्वेक्षण) निदेशालय तथा निरीक्षण (प्रणाली) निदेशालयों की स्थापना की गई।
- निरीक्षण निदेशालय (आयकर और लेखा परीक्षा) के अन्तर्गत एक अलग निरीक्षण निदेशालय (लेखा परीक्षा) बनाया गया।
- निरीक्षण निदेशालय (आर एस एंड पी) का पुनर्गठन किया गया फिर से संगठित और निरीक्षण निदेशालय (पी एंड पी आर) को निरीक्षण निदेशालय (मुद्रण और प्रकाशन) के रूप में फिर से नामित किया गया।
- आईआरएस (डीटी) स्टाफ कॉलेज, नागपुर को प्रत्यक्ष कर राष्ट्रीय अकादमी के रूप में फिर से नामित किया गया।
- विशेष वाहक बांड (उन्मुक्ति और छूट) अधिनियम प्रख्यापित हुआ।
- केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के नियंत्रण के अन्तर्गत विभिन्न निदेशालयों के कामकाज को नियंत्रित करने के लिए महानिदेशक (विशेष अन्वेषण) और महानिदेशक (अन्वेषण) नियुक्त किए गए।
- मुख्य आयुक्त (प्रशासन) के पांच पद बनाए गए।
- आयकर आयुक्त के कुछ पदों को आयकर (अन्वेषण) और आयकर आयुक्त (वसूली) के रूप में चिह्नित किया गया।
-
1982
- निरीक्षण (अन्वेषण) निदेशालय के अन्तर्गत विशेष कक्ष को एक अलग निदेशालय में बदल दिया गया और निरीक्षण निदेशालय (विशेष अन्वेषण) के रूप में, फिर से नामित किया गया।
- आयकर निदेशालय ( संगठन तथा प्रबंधन सेवाएं) में डी आई टी (प्रणाली) की नियुक्ति की गई ताकि आई टी विभाग में इलेक्ट्रॉनिक डाटा संसाधन शुरू करने में प्रयासों का समन्वय किया जा सके। डेटा प्रविष्टि प्रणाली के साथ एक माइक्रोप्रोसेसर आधारित ईडीपी प्रणाली को कम्प्यूटीकरण के युग की घोषणा के साथ, स्थापित किया गया।
- होटल रसीद कर की वसूली बंद कर दी गई।
- राष्ट्रीय प्रत्यक्ष कर अकादमी के नियंत्रण में नागपुर में क्षेत्रीय प्रशिक्षण संस्थान ने कार्य शुरू कर दिया।
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1983
- सतर्कता के ढ़ांचे का पुनर्गठन किया गया और उप निदेशक (सतर्कता) और सहायक निदेशक (सतर्कता) की शक्तियां संवर्धित कर दी गई।
- चालानों के संसाधन और स्थाई खाता संख्या के डिजायन और उन्नयन के लिए कंप्यूटरीकृत प्रणाली लागू की गई।
-
1984
- बेहतर कार्य प्रबंधन, करदाताओं को असुविधा से बचाने, मुकदमेबाजी को कम करने, विसंगतियों को दूर करने और कुछ प्रावधानों को युक्तिसंगत बनाने के लिए, प्रक्रियाओं को कारगर करने के उद्देश्य से, कराधान कानून (संशोधन) अधिनियम 1984 को पारित किया गया।
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1985
- कर अपवंचना की अधिक प्रभावी जांच करने के लिए महानिदेशक (अन्वेषण) का पद बनाया गया।
- प्रवर्तन निदेशालय (संशोधन) अधिनियम 1985 द्वारा 16-03-1985 को या इसके बाद होने वाली मृत्यु के मामलों में संपदा शुल्क की लेवी बंद कर दी गई।
- दिनांक 1-4-1985 से अनिवार्य जमा योजना (आयकर दाता अधिनियम 1974) को अप्रभावी किया गया।
- 31-3-1985 से आय कर अधिनियम को समाप्त कर दिया गया।
- दिनांक 1-4-1985 से अभिप्रेरित अधिकारियों के लिए एक नई "पुरस्कार योजना" प्रस्तुत की गई।
-
1986
- आयकर अधिनियम तथा कर कटौती कर अधिनियम में कराधान कानून (संशोधन और विविध उपबंध अधिनियम) द्वारा संशोधन किया गया।
- निपटान आयोग की स्थापना ।
- मूल्यह्रास के लिए ब्लॉक परिसंपत्तियों अवधारणा प्रारंभ की गई।
- बेहिसाब पैसे से महानगरीय शहरों में निवेश द्वारा अर्जित सम्पत्ति की जांच हेतु उपयुक्त प्राधिकारी के चार कार्यालय स्थापित किए गए।
-
1987
- निपटान आयोग की तीन नई बेंच स्थापित करने के लिए सरकार से अनुमोदन प्राप्त किया।
- कर कानूनों के सरलीकरण और युक्तिकरण बनाने के लिए लालकृष्ण झा समिति का गठन किया गया।
- महानिदेशालय (कर छूट) का कार्यालय कलकत्ता में स्थापित किया गया।
- प्रत्यक्ष कर कानून संशोधन अधिनियम 1987 को पिछले वर्ष में समान रूप से शुरू किया गया और निम्नलिखित अधिकारियों को पद नामित किया गया : -
- निदेशक निरीक्षण।
- निरीक्षण सहायक आयुक्त (आयकर)।
- अपीलीय सहायक आयुक्त।
- आयकर अधिकारी ग्रेड ए।
- आयकर अधिकारी ग्रेड बी।
- आयकर –निदेशक।
- आयकर के उप आयुक्त।
- - वही- (अपील)
- आयकर -सहायक आयुक्त।
- आयकर अधिकारी।
- व्यय कर अधिनियम 1987 को प्रभावी किया गया ।
-
1988
- बेनामी लेनदेन निषेध अधिनियम 1988 की शुरुआत हुई।
- सरकार ने 'एक निश्चित समय योजना (Time window Scheme)' की घोषणा की जिसमें कर दाताओं द्वारा कर तथा ब्याज का भुगतान करने पर, उन्हें धारा 220(2) के अंतर्गत 50% छूट की अनुमति दी गई। योजना 1-7-88 से 30-9-88 के बीच लागू रही।
- सीआईटी (केन्द्रीय) को महानिदेशक (अन्वेषण) के नियंत्रण और पर्यवेक्षण में रखा गया।
- सरकार ने निर्णय लिया कि समूह 'सी' और 'डी' के पदों के लिए संवर्ग पर नियंत्रण मुख्य आयुक्त के पास रहेगा और ग्रुप 'ए' और 'बी' के पदों के लिए सीबीडीटी के पास होगा।
- सिक्किम राज्य पर प्रत्यक्ष कर कानून के विस्तार के लिए, भारत के राष्ट्रपति की ओर से एक अधिसूचना दिनांक 7-11-1988 की गई।
-
1989
- आयकर महानिदेशक (अनुसंधान, सांख्यिकी, प्रकाशन एवं जन सम्पर्क) आयकर निदेशालय (संगठन और प्रबंधन सेवाएं के पर्यवेक्षण के लिए एक डी जी आई टी (प्रबंधन प्रणाली) संलग्न कार्यालय का सृजन सितंबर 1989 से किया गया।
-
1990
- 31-5-1990 को उपहार कर बिल प्रस्तुत किया गया।
- आयकर के सहायक आयुक्तों के समान पदों की संख्या के समान आयकर के उप आयुक्तों के 65 पदों का सृजन किया गया।
-
1991
- ब्याज कर अधिनियम, 1974 की समीक्षा की गई।
- आयकर निदेशालय (प्रणाली) ने सीधे बोर्ड को रिपोर्ट करना आरंभ किया।
-
1992
- कर के आधार को विस्तृत करने के उपाय के रूप में 1400 संभावित योजनाएं आरंभ की गई।
- आयकर के महानिदेशक (प्रबंधन प्रणाली) के पद को समाप्त कर दिया गया।
-
1993
- आयकर आयुक्त (अपीलीय) के 40 अतिरिक्त पद बनाएं गए।
- अग्रिम निर्णय के लिए प्राधिकारी की स्थापना की गई।
- समूह बी, सी तथा डी हेतु एक व्यापक चरणबद्ध संवर्ग समीक्षा आरंभ की गई।
-
1994
- समूह बी, सी तथा डी में 2068 अतिरिक्त पद स्वीकृत किए गए।
- नया पैन (New PAN) आरंभ किया गया।
- चेन्नई दिल्ली तथा मुम्बई में नए क्षेत्रीय केंद्र (RCCs) बनाए गए।
-
1995
- सर्च आंकलन के लिए नई प्रक्रिया आरंभ की गई।
- प्रशिक्षण के 50 वर्षो का उत्सव मनाया गया और प्रत्यक्ष करों की राष्ट्रीय अकादमी द्वारा "सेमिनार पच्चीस वर्ष" प्रस्तुत किया गया।
-
1996
- आयकर आयुक्तों के 77 पद सृजित किए गए।
- परिचालन जरूरतों के लिए आधारभूत संरचना को मजबूत बनाया।
- आयकर निदेशालय (संगठन और प्रबंधन सेवाओं) द्वारा तैयार की गई समूह 'ए' के अधिकारियों (आई आर एस) के चौथे संवर्ग की समीक्षा पर अध्ययन रिपोर्ट।
-
1997
- आयकर की दरों में काफी कम किया गया।
- कर आधार को विस्तृत करने के लिए, कुछ चुनिंदा शहरों में, कुछ आर्थिक संकेतकों के आधार पर, कानूनी उपाय किए गए।
- अनुमानित कर योजना को बंद कर दिया गया।
- स्वैच्छिक प्रकटीकरण योजना 1997 शुरू की गई।
- न्यूनतम वैकल्पिक कर पेश किया गया।
- दिल्ली में राष्ट्रीय कम्प्यूटर केन्द्र (एन सी सी) स्थापित किया गया।
-
1998
- उच्च न्यायालय में सीधे अपील करने के लिए धारा 260ए प्रस्तुत की गई।
- कर आधार को विस्तृत करने के लिए आयकर विवरण न भरने पर 1/6 योजना और दण्ड का प्रावधान किया गया।
- 1-10-1988 के बाद किए गए उपहार के लिए उपहार कर को समाप्त कर दिया गया।
- कर विवाद समाधान योजना 1998 में शुरू की गई।
- क्षेत्रीय प्रशिक्षण संस्थान की रजत जयंती मनाई गई।
- सहायक आयुक्त (सीनियर टाइम स्केल) का पदनाम बदल कर उप आयुक्त तथा उप आयुक्त (जूनियर) प्रशासनिक ग्रेड का पदनाम बदल कर संयुक्त आयुक्त कर दिया गया।
-
1999
- रिफण्ड के उद्देश्य से बैंक खातों तथा क्रेडिट कार्ड के विवरण, निर्धारित प्रारूप में दिए जाने अनिवार्य कर दिए गए।
- आयकर विवरण में प्रथम -दृष्टया समायोजन को हटा दिया गया, पावतियों को जानकारियों के रूप में माना जाने लगा।
- पात्र करदाताओं का सम्मान करने के लिए 1999 में सम्मान योजना शुरू की गई।
-
2000
- क्षमता को बढ़ाने और काम का बोझ बढ़ जाने के कारण इससे निपटने के लिए, विभाग के पुनर्गठन के कार्यान्वयन की प्रक्रिया शुरू की गई।
- कुल स्वीकृत कार्य क्षमता की संख्या को 61,031 से घटाकर 58,315 किया गया।
- संरचनात्मक स्तर पर कुछ युक्तिकरण उपाय आरंभ किए गए।
- 1-4-2000 से ब्याज कर अधिनियम को समाप्त किया गया।
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2001
- विभाग के पुनर्गठन के कारण, सभी स्तरों पर ठहराव में कमी आई और विभिन्न ग्रेड में काफी बड़ी संख्या में कर्मियों को पदोन्नत किया गया।
- क्षेत्राधिकार स्वरूप में सुधार किया गया।
- अनुसंधान, अंतरराष्ट्रीय कराधान और इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में आयकर महानिदेशक/ सूचना प्रौद्योगिकी विभाग के स्तर पर नए पद बनाए गए।
-
2002
- पूरे देश में विवरणियों का कम्प्यूटीकृत संसाधन शुरू किया गया।
- केलकर समिति की रिपोर्ट में, अन्य बातों के साथ निम्न सिफारिश की : -
i. विभाग के गैर- कार्यों की आउटसोर्सिंग;
ii. छूटों, कटौतियों, राहतों, बट्टे आदि में कमी।
- विभाग और करदाताओं के बीच एक महत्वपूर्ण सम्पर्क प्रदान करने के लिए आयकर विभाग द्वारा राष्ट्रीय वेबसाइट (www.incometaxindia.gov.in) शुरू की गई।
-
2003
- राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस पुरस्कारों के लिए सरकारी वेबसाइटों की श्रेणी में विभाग की राष्ट्रीय वेबसाइट www.incometaxindia.gov.in ने रजत पदक जीता।
-
2004
- कर आधार को विस्तृत करने के उद्देश्य से ए आई आर की अवधारणा (वार्षिक सूचना रिटर्न) की गई।
- कर आधार को विस्तृत करने और प्रत्यक्ष कर संग्रह को बढाने के लिए फ्रिंज बेनिफिट टैक्स (एफ बी टी) को एक बड़े उपाय के रूप में पेश किया गया।
- प्रतिभूति लेनदेन कर (एस टी टी) शुरू किया गया।
-
2005
- शिपिंग कंपनियों के लिए टन भार कर प्रणाली शुरू की गई।
- 01-06।2005 से बैंकिंग नकदी लेनदेन कर (बी सी टी टी) की शुरूआत की गई।
-
2006
- इनकम टैक्स रिटर्न की इलेक्ट्रॉनिक फाइलिंग (ई-फाइलिंग) को सक्षम बनाने के लिए एक परियोजना शुरू की गई।
- व्यक्तियों और एचयूएफ करदाताओं की सहायता के लिए कर विवरण तैयारकर्त्ता योजना (टी आर पी) आरंभ की गई ताकि ये अपनी आयकर विवरणी प्रस्तुत कर सके।
- देश भर के, 12 शहरों में, आम जनता की कर से संबंधित शिकायतों पर गौर करने के लिए आयकर लोकपाल नामक संस्था स्थापित की गई।
-
2007
- दिल्ली और पटना में रिफंड बैंकर योजना आरंभ की गई।
- करदाताओं को मानक सेवा प्रदान करने के लिए सर्वोत्तम योजना आरंभ की गई।
- आयकर विवरणी सहित कुछ निर्धारित दस्तावेजों की केंद्रीकृत पावती तथा पंजीकरण के लिए पहली नागरिक मित्रवत् एकल खिड़की आयकर सेवा केंद्र (ASK) शुरू की गई।
- 2007-08 में आयकर विभाग सरकार के लिए सबसे बड़ा राजस्व संग्रहक बन गया। इसकी हिस्सेदारी जोकि 1997-98 में 34.76% थी, 2007-08 में बढकर 52.75% हो गई।
- 500 से अधिक शहरों में 700 से अधिक कार्यालयों को जोड़ने के लिए अखिल भारतीय कर नेटवर्क (TEXNET) की स्थापना की गई। 36 स्वतंत्र क्षेत्रीय डाटाबेसों (आर सी सी) को एकल केंद्रीकृत डाटाबेस (पी डी सी या प्राथमिक डाटा सेंटर) में एकीकृत किया गया।
- करदाताओं की 360° प्रोफ़ाइल को बनाने के लिए एकीकृत करदाता डेटा प्रबंधन प्रणाली (ITDMS) शुरू की गई।
-
2008
- खोज और सर्वेक्षण के संचालन के दौरान प्रासंगिक डिजिटल डाटा की पहचान ठीक से करने के लिए साइबर फॉरेंसिक लैब्स स्थापित की गई ताकि छिपाए गए या पासवर्ड से सुरक्षित या डिलीट किए गए डाटा या पुन: प्राप्त किए गए डाटा को इस प्रकार स्टोर किया जा सके कि इसे न्यायिक कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल किया जा सके।
- वर्ष 2007-08 के लिए राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस पुरस्कारों के तहत, "नागरिक केंद्रित सेवा प्रदान करने में उत्कृष्ट प्रदर्शन" की श्रेणी में, आयकर विवरणों की इलेक्ट्रॉनिक फाइलिंग परियोजना के अंतर्गत सिल्वर अवॉर्ड दिया गया।
-
2009
- ई-फाइल की गई तथा पेपर पर दायर आयकर विवरणियों का संसाधन करने के लिए बैंग्लुरू में केंद्रीकृत प्रसंस्करण केंद्र स्थापित किया गया था। केंद्र एक मुक्त तरीके – अपने अधिकार क्षेत्र में रहकर, करदाताओं के साथ किसी भी प्रकार के इंटरफ़ेस के बिना कार्य कर रहा है।
-
2010
- शासन और प्रशासन में उत्कृष्टता' हेतु प्रधानमंत्री पुरस्कार से एकीकृत करदाता डेटा प्रबंधन प्रणाली (ITDM) को सम्मानित किया गया।
- वर्ष 2011-2010 के लिए राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस पुरस्कार के तहत 'सरकार प्रक्रिया री- इंजीनियरिंग में उत्कृष्टता' के लिए, सीपीसी बेंगलुरू को स्वर्ण पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
- 50 वर्ष पुराने आयकर अधिनियम, 1961 को सरल बनाने के लिए संसद में, 'प्रत्यक्ष कर संहिता विधेयक, 2010' पेश किया गया।
-
2011
- सीबीडीटी के विदेशी कर प्रभाग को प्रभावी ढंग से कर जानकारी विनिमय तथा अंतरण मूल्य निर्धारण के मुद्दों में हुई वृद्धि को संभालने के लिए मजबूत बनाया गया।
- दक्षतापूर्वक कर प्रशासन के लिए विभिन्न आईटी पहल की गई। इनमें ई-फाइलिंग और करों का ई-भुगतान, सी बी ई सी और सी बी डी टी द्वारा 'सर्वोत्तम' की अवधारणा को अपनाने, कर दाताओं के लिए रिफण्ड का पता लगाने और पहले से प्रदत्त करों के क्रेडिट का पता करने तथा संसाधन क्षमता के विस्तार के लिए वेब आधारित सुविधा शामिल है।
- 'सुगम' नाम से एक नया सरलीकृत फार्म आरंभ किया गया ताकि संभावित कराधान के भीतर आने वाले छोटे करदाताओं के अनुपालन बोझ को कम किया जा सके।
-
2012
- वरिष्ठ नागरिकों (पेशे/व्यवसाय से कोई आय नहीं होने वाले) को अग्रिम कर के भुगतान से छूट दी गई।
- TEACES (टी डी एस समाधान, लेखांकन और सुधार को सक्षम करने की प्रणाली) प्रारंभ की गई ताकि हितधारकों को टी डी एस परिचालनों से संबंधित सेवाओं हेतु सुविधा प्रदान करने के लिए एकीकृत स्थान पर सेवा प्राप्त हो सके।
-
2013
- सरकार ने विभाग के संवर्ग के पुनर्गठन हेतु 20,751 अतिरिक्त पदों के सृजन के लिए अनुमोदन कर दिया ताकि तथा विभाग को प्रभावी बनाने के लिए विभिन्न उपाय किए जा सके।
- संक्षेप में, अनुमोदित पुनर्गठन की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं:
- क. कर प्रशासन को मजबूत बनाने के लिए आंकलन इकाईयों (AUs) की संख्या को 1080 से बढाकर 3420 से 4500 कर दिया;
- ख. प्रत्येक श्रेणी में एक अतिरिक्त आंकलन अधिकारी होगा;
- ग. आंकलन से संबंधित कार्यों पर लगाए गए प्रशासनिक सी एस आई टी की संख्या को 228 से बढ़ाकर 250 किया गया;
- घ. पर्याप्त सहायकों मानवशक्ति के साथ 114 विशेष रेंज बनाई गई;
- ङ. आई आर एस संवर्ग में 620 रिजर्व बनाए गए;
- च. कार्यात्मक आधार पर सी आई टी के पदों का विभाजन एच एजी तथा एस ए जी में किया गया;
- छ. सी सी एस आई टी के सभी विद्यमान 116 पदों को उन्नत करके एच ए जी + और इससे उच्चतर वेतनमान में बढ़ोत्तरी के साथ साथ इनकी संख्या में 1 पद की वृद्धि की गई;
- ज. तीन और क्षेत्रीय प्रशिक्षण संस्थानों के निर्माण के साथ प्रशिक्षण व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण किया गया;
- झ. सीआईटी अपील की संख्या में बढ़ोत्तरी करके अपीलीय/सलाहकार संरचना को मजबूत बनाया गया और इन्हें सहायक जनशक्ति प्रदान गई। आई टी ए टी में भी परामर्श संरचना को मजबूत किया जाएगा।
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2014
- नए फीचर और विषय वस्तु के साथ प्रांरभ हुई आयकर विभाग की नई राष्ट्रीय वेबसाइट www.incometaxindia.gov.in
- बनाए स्विस बैंक खाते में काले धन की जांच के लिए विशेष जांच समूह
- डा पारससाथ्री शोम की अध्यक्षता में कर प्रशासनिक सुधार आयोग (टीएआरसी) ने विश्व की सबसे अच्छी प्रथा के संदर्भ में कर नीतियों और कर नीतियों को लागू करने के पुर्नमूल्यांकन की रिपोर्ट को जमा किया और इसकी प्रभावशीलता और दक्षता को बढ़ाने के लिए कर प्रशासन में आवश्यक सुधारों के लिए उपायों की सिफारिश की।
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2015
- संपत्ति कर अधिनियम, 1957 के तहत संपत्ति कर संबंधी उन्मूलन
- प्रभावी प्रबंधन स्थान अवधारणा (पीओईएम) का शुभारंभ
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2016
- इक्वलाइजेशन लेवी का परिचय।
- मूल कटौती एवं लाभ स्थानांतरण (बीईपीएस) उपायों के कार्यान्वित करने हेतु प्रारंभ की गई राष्ट्र-दर-राष्ट्र रिपोर्ट की प्रस्तुति।
- पेशेवरों के लिए प्रकल्पित कराधान योजना का शुभारंभ।
- बेहिसाब आय घोषित करने के लिए प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना (पीएमजीकेवाई) का शुभारंभ।
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2017
- मूल देय तिथि की समाप्ति के बाद आयकर विवरणी दाखिल करने वाले करदाताओं पर शुल्क लगाने की प्रस्तावना।
- निम्नतम स्लैब रुपये 2,50,000 से रु. 5,00,000 के लिए कर की दर को 10% से घटाकर 5% किया गया।
- पूंजीगत लाभ की गणना के लिए आधार वर्ष को 1981 से 2001 में स्थानांतरित करना।
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2018
- वेतनभोगी व्यक्ति से मानक कटौती का पुन: परिचय।
- बैंक ब्याज अर्जित करने वाले वरिष्ठ नागरिकों के लिए धारा 80 ननख के तहत नई कटौती का शुभारंभ।
- सूचीबद्ध इक्विटी शेयरों से होने वाले पूंजीगत लाभ पर उपलब्ध छूट की निरस्ती।
- मूल्यांकन कार्यवाही इलेक्ट्रॉनिक रूप से संचालित करने के लिए 'ई-कार्यवाही' की शुरूआत।
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2019
- घरेलू कंपनियों के लिए वैकल्पिक कर व्यवस्था की शुरूआत।
- कैशलैश अर्थव्यवस्था के प्रोत्साहन हेतु, निर्धारित सीमा से अधिक नकदी की निकासी पर स्रोत पर कर कटौती (टीडीएस) के लिए धारा 194न की शुरूआत।
- पैन और आधार को एक दूसरे के स्थान पर इस्तेमाल किया जा सकता है।
- विभाग के कामकाज में पारदर्शिता लाने के लिए दस्तावेज़ पहचान संख्या (डीआईएन) की शुरूआत।
- ई-आकलन योजना, 2019 की प्रस्तावना।
-
2020
- चेहरा रहित मूल्यांकन योजना 2020 व चेहरारहित अपील योजना 2020 की प्रस्तावना।
- व्यक्तियों के लिए रियायती कर संबंधी दरों की शुरूआत।
- लाभांश वितरित कर (डीडीटी) की समाप्ति।
- मुकद्मेबाजी को कम करने और सरकारी राजस्व को बढ़ावा देने हेतु "विवाद से विश्वास" योजना का शुभारंभ।
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2021
- नए ई-फाइलिंग पोर्टल की शुरूआत।
- आयकर विवरणी दाखिल करने हेतु जेएसओएन यूटिलिटी की प्रस्तावना।
- वरिष्ठ नागरिकों को कुछ स्थितियों में आयकर विवरणी दाखिल करने में छूट प्रदान की गई।
- पुनर्मूल्यांकन और तलाशी संबंधी आकलन के लिए नई योजना का शुभारंभ।
- आईटीएटी के समक्ष चेहरारहित कार्यवाही की प्रस्तावना।
- अग्रिम निर्णय हेतु बोर्ड का गठन।
- समझौता आयोग की समाप्ति।
-
2022
- वर्चुअल डिजिटल परिसंपत्ति के कराधान संबंधी प्रस्तावना।
- कोविड-19 से संबंधित मुआवजे हेतु कर संबंधी राहत की शुरूआत।
- 'अद्यतित विवरणी' की प्रस्तावना जिसे विलंबित/संशोधित विवरणी दाखिल करने की देय तिथि की समाप्ति के बाद भी दाखिल किया जा सकता है।